रुद्राक्ष-मान्यता व महात्म्य
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार, रुद्राक्ष को भगवान शिव का ही स्वरूप माना गया है। रुद्राक्ष के विषय में हमारे धार्मिक एवं पौराणिक ग्रन्थों में अनेक प्रकरण मिलते हैं । रुद्राक्ष को मुखदार रूप में पूजा जाता है, इसकी माला बनाकर पहनी जाती है तथा इसका औषधि के रूप में भी अनेक प्रकार से प्रयोग किया जाता है।
मान्यता ऐसी है कि घर में रुद्राक्ष की पूजा-अर्चना करने से लक्ष्मी का हमेशा वास रहता है तथा अन्न, वस्त्र व अन्य किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं रहती है। जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण करते हैं उनको भूत-प्रेत आदि व्याधियाँ कभी भी परेशान नहीं करती हैं। रुद्राक्ष की पूजा-अर्चना करने वाले निश्चय ही अंत समय में स्वर्ग जाते हैं।
रुद्राक्ष
रुद्र + अक्षि (रुद्राक्ष) अर्थात् रुद्र (शिव) की आँखों से उत्पन। रुद्राक्ष फल व फूल दोनों ही हैं। इसका रंग भूरा होता है, यह गर्म व तर होता है। कुछ विद्वान् इसे ठंडा भी मानते हैं। यह रक्त-विकार को नष्ट तथा धातु को पुष्ट करता है। शरीर के बाहर और भीतर के कीटाणुओं को मारता है, इससे रक्तचाप व हृदय रोग दूर होने में मदद मिलती है। स्वाद में खट्टा-सा लगता है।
रुद्राक्ष को सभी मालाओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया है तथा इस पर किये गये मंत्र-जाप आदि का फल भी सभी मालाओं पर किये गये जाप से कई सहस्त्र गुणा ज्यादा मिलता है, ऐसा हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है।
रुद्राक्ष उत्पत्ति की प्राचीन कथा
स्कन्द महापुराण में रुद्राक्ष उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है--प्राचीन समय में पाताल लोक का मय नामक राजा बड़ा ही बलशाली, शूरवीर, महापराक्रमी और अजेय था। एक बार उसके मन में लोभ जागा कि पाताल से बाहर निकलकर अन्य लोकों पर विजय प्राप्त की जाये । अपने इसी विचार के अनुकूल उन पातालवासी दानवों ने मानवों, गंधर्वों और देवताओं पर आक्रमण शुरू कर दिये। अपने बल के मद में चूर मय ने हिमालय पर्वत के तीन श्रृंगों पर तीन पुर बनवा लिये । वे तीनों पुर अलग-अलग धातुओं से निर्मित थे। एक सोने का पुर था, दूसरा चाँदी का तथा तीसरा लोहे का।
ये तीनों पुर एक प्रकार से अभेद्य दुर्ग थे। ऐसे अभेद्य पुरों में रहकर इन त्रिपुरासुरों ने देवताओं को अति कष्ट दिया। उन्होंने देवताओं के स्थानों को जीत लिया और उन्हें अधिकारों से वंचित करके उनसे जीते गये उन्हीं स्थानों में रहने लगे। देवगणों के समान ही त्रिपुरासुरों ने गंधवों और मानवों पर भी अत्याचार किये और उन्हें भी जीत लिया। इस प्रकार अभेद्य त्रिपुर में रहकर त्रिपुंरासुरों ने तीनों लोकों को जीत लिया और एकछत्र राज्य करने लगे।
इस प्रकार महापराक्रमी त्रिपुरासुरों के द्वारा देश, घर, अधिकार आदि सब कुछ छीन लिये जाने से देवगण अति भयभीत हो गये और दुःख व शोक में डूब गये। त्रिपुरासुरों के भय से उन देवताओं को किसी ने भी शरण नहीं दी। सब पत्नी, पुत्र, मित्र आदि से विमुक्त हो गये । देवताओं, मानवों और गंधर्वों को प्राण बचाने के लिये अपने स्थानों को छोड़कर इधर-उधर वनों में निर्जन गर्तों में, गुफाओं आदि में छिपकर रहना पड़ा।
इस भयंकर विपत्ति के समय में सब देवगणों ने मिलकर इस संत्रास से छुटकारा पाने के लिये आपस में विचार-विमर्श किया । बुद्धिपूर्वक मंत्रणा करके सबने निश्चय किया कि उन्हें उनकी दुर्दशा से सम्पूर्ण जगत के रचयिता ब्रह्मा जी ही छुटकारा दिला सकते हैं, अतः अपने इस निश्चय के परिणामस्वरूप सब देवगण मिलकर ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी के पास गये ओर उन्हें अपनी दुर्दशा का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया । सबने मिलकर ब्रह्मा जी से प्रार्थना कि त्रिपुरासुर दानवों से अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं, अत: कोई ऐसा उपाय करें जिससे हम उन बलगर्वित दानवों को जीतकर पूर्व की भाँति अपने स्थानों ओर अधिकारों को प्राप्त कर सकें ।
देवगणों के द्वारा इस वृत्तान्त को सुनकर ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि त्रिपुरासुर इस समय महापराक्रमी हैं, समय ओर भाग्य उनका साथ दे रहा है। अपने अभेद्य दुर्गों तथा महाप्रतापी होने के कारण इस समय वे इतने शक्तिशाली हैं कि युद्ध करके में भी उन्हें परास्त नहीं कर सकता । इस महाविपदा से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि हम सब मिलकर विष्णु लोक में भगवान विष्णु की शरण में चलें। निश्चय ही भगवान विष्णु के पास चलने से आपका कल्याण होगा।
इस प्रकार, ब्रह्मा जी सहित सब देवगण मिलकर विष्णुलोक में भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे । भगवान विष्णु की स्तुति करके देवगणों ने अपनी करुण गाथा उनके समक्ष प्रस्तुत की और उनसे निवेदन किया कि किसी प्रकार त्रिपुरासुरों से उनको रक्षा का उपाय करें। इस पर भगवान विष्णु ने भी ब्रह्माजी की भाँति ही अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए देवगणों से कहा कि इस विपत्ति से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि हम सब मिलकर देवाधिदेव भगवान शंकर की शरण में कैलाश पर्वत पर चलें, वही आपकी इस महाविपत्ति से रक्षा कर सकते हैं। इतना कहकर मधुसूदन भगवान विष्णु भी ब्रह्मा जी और इन्द्रादि देवताओं के साथ भगवान शंकर के लोक कैलाश पर्वत की ओर चल दिये।
कैलाश शिखर पर पहुँचकर सबने वहाँ देवाधिदेव वृषभध्वज भगवान शंकर के दर्शन किये। भगवान शंकर की स्तुति और दण्डवत् करने के पश्चात् देवगणों ने उन्हें अपनी विपदा सुनाई और कहा कि मय नाम के दानवेद्ध ने त्रिकुट पर तीन अभेद्य पुर स्थापित कर लिये हैं। उन त्रिपुरासुरों ने हमारा सब-कुछ छीनकर हमें बुरी तरह परास्त कर दिया है, अत: हम सब मिलकर आपकी शरण में आये हैं। अब आप ही इस महान् कष्ट और संत्रास से हमारी रक्षा कर सकते हैं।
देवताओं की इस मार्मिक प्रार्थना को सुनकर भगवान शंकर ने उन्हें अभय का आश्वासन दिया और कतिपय युद्ध-सामग्री प्रस्तुत करने को कहा। भगवान शंकर की बात सुनकर देवगणों ने कुछ ही समय में रथ, धनुष, प्रत्यंचा, सारथी, दिव्य-बाण आदि सभी युद्ध सामग्री की व्यवस्था कर दी ।
इस युद्ध के लिये पृथ्वी मण्डल को रथ बनाया गया था। रथ के सारथी स्वयं चतुर्मुख ब्रह्मा जी थे। पृथ्वी मण्डल स्वरूप रथ पर चढ़कर सुमेरू पर्वत रूपी धनुष को भगवान शंकर ने धारण कर लिया । सागर स्वरूप तुनीर को भगवान ने बाँध लिया। कमलकांत भगवान विष्णु स्वयं दिव्य-बाण बनकर उपस्थित थे । उन्हें भगवान शिव ने हाथ में ले लिया।
इस प्रकार युद्ध के लिये तैयार होकर भगवान शंकर, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि देवताओं सहित हिम शैलेन्द्र के श्रृंगों पर स्थित त्रिपुरासुरों के नगरों के पास पहुँचे । त्रिपुरासुरों के नगरों के समक्ष पहुँचकर भगवान शिव ने साक्षात् नारायण स्वरूप अमोघ-बाण को अपने धनुष पर चढ़ाया शूलपाणि साधते ही उन दानवों के तीनों पुर दग्ध हो गये। इस प्रकार त्रिपुर के जलते ही दानवों में हाहाकार मच गया। त्रिपुर के नायक दानवगण मारे गये, कुछ भय के मारे भाग गये, कुछ शराग्नि से जल गये। त्रिपुर दाह के समय भगवान शिव ने अपने रौद्र शरीर को धारण कर लिया था।
इस प्रकार मय दानवेन्द्र एवं उसके द्वारा रक्षित त्रिपुरासुरों का नाश हो जाने के पश्चात् अपने रौद्र रूप में ही भगवान शंकर ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि सब देवताओं को साथ लेकर हिमालय पर्वत के एक सुन्दर शिखर पर युद्ध की थकान मिटाने के लिये विश्राम करने पहुँचे | युद्ध की थकान मिट जाने पर भगवान शंकर अत्यन्त हर्षित हुये । विजयी भगवान शंकर उस हर्ष के कारण जोर-जोर से हँसने लगे और उसी हर्ष में हँसते-हँसते भगवान रुद्र के नेत्रों से चार बूँद आँसू टपक पड़े । उन्हीं चार बूँद हश्राश्रुओ के उस शीतशैल शिखर पर गिर जाने से चार अंकुर पैदा हुये। समयानुसार वे चारों अंकुर बढ़कर पत्र, पुष्प और फल आदि से हरे-भरे हो गये। इस प्रकार रुद्र के अश्रुकणों से उत्पन ये वृक्ष रुद्राक्ष नाम से ही जगत में विख्यात हो गये ।
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