रत्न उत्पत्ति का पौराणिक आधार और रत्न उत्पत्ति की वैज्ञानिक मान्यता

ratna-utpati-ka-pauranik-adhar-aur-ratna-utpati-ki-vaigyanik-manta-रत्न उत्पत्ति का पौराणिक आधार और रत्न उत्पत्ति की वैज्ञानिक मान्यता

रत्न : सामान्य परिचय

प्राचीन शास्त्रों के अनुसार, रत्नों और उपरत्नों की कुल संख्या चौरासी मानी गयी है, किन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य उपरत्न होते हैं, जिन्हें बाद में उपरत्नों की श्रेणी में रखा गया है। इन उपरत्नों में कुछ ऐसे उपरत्न भी हैं, जो प्राय: अप्राप्य या दुर्लभ हैं, साथ ही इनमें ऐसे उपरत्न भी शामिल हैं जो रलों के रूप में आभूषणों में जड़ने के काम नहीं आते अथवा ज्योतिष की दृष्टि से भी जिनका कोई महत्त्व नहीं है, किन्तु प्रसंगवश सभी रत्न-उपरत्नों का विवरण यहाँ दिया जा रहा है।

इन सभी रत्नों मे मात्र नौ ही रत्न ऐसे हैं जिन्हें नवरत्न की संज्ञा दी गयी है। ये नवरत्न इस प्रकार हैं--माणिक, मोती, मूँगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद और लहसुनिया | इन नवरत्नों में भी मोती, माणिक, नीलम, हीरा और पन्‍ना इन पाँच रत्नों को ही विशेष स्थान प्राप्त होने के कारण इन्हें महारत्न माना गया है। इसके अतिरिक्त, मूँगा, पुखराज, गोमेद और लहसुनिया को केवल रत्न माना गया है। इन नवरत्नों के अतिरिक्त जितने भी रत्न हैं, उन्हें उपरत्न ही माना गया है।

रत्न की उत्पत्ति

समय से ही रत्नों के विषय में लोगों की जिज्ञासा रही है की रत्न क्या है, रत्नों की उत्पत्ति कैसे होती है, रत्नों का क्या प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है? इस विषय में हमारे प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से लेकर विभिन्न पुराणों तथा संहिताओं में अनेक प्रसंग मिलते हैं। आधुनिक काल के विद्वानों ने भी इस विषय पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है। हमारे प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों तथा आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा के विद्वानों ने रल उत्पत्ति के विषय में प्राय: दो ही आधार माने हैं। इनमें से एक तो पौराणिक-धार्मिक आधार है और दूसरा वैज्ञानिक । यहाँ हम इन दोनों ही मान्यताओं पर विचार करेंगे।

रत्न उत्पत्ति का पौराणिक आधार

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार जिस प्रकार रुद्राक्ष का जन्मदाता भगवान शंकर को माना गया है, उसी प्रकार रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी अनेक कथायें इनमें मिलती हैं। इन कथाओं में एकाध कथा का वर्णन यहाँ देना असंगत न होगा।

देत्यराज बलि की कथा

प्राचीन समय में दैत्यराज बलि बड़ा ही शक्तिशाली तथा पराक्रमी राजा था। अपने पराक्रम के बल से उसने समस्त पृथ्वीलोक को जीत लिया था। पृथ्वीलोक पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्‌ उसने देवराज इन्द्र को भी युद्ध में परास्त कर दिया था, किन्तु असुर होते हुए भी बलि बड़ा ही दानवीर भी था।

देवताओं की युद्ध में पराजय हो जाने के पश्चात्‌ इन्द्रादि सब देवगण मिलकर भगवान विष्णु के पास गये और उनसे अपनी रक्षा करने की प्रार्थना की। इस पर भगवान विष्णु बौने ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा बलि के पास गये और उससे मात्र साढ़े तीन पग पृथ्वी दान स्वरूप माँगी।


अपने बल, ऐश्वर्य और पराक्रम के घमण्ड में चूर बलि भगवान विष्णु को नहीं पहचान पाया और उसने सहर्ष वामन अवतार विष्णु को साढ़े तीन पग पृथ्वी दान स्वरूप देने का बचन दे दिया। इस पर भगवान विष्णु ने अपना विराट रूप धारण किया और तीन ही पगों में तीनों लोकों को नाप लिया, किन्तु आधा पग अभी शेष था, जो कि भगवान विष्णु ने बलि की छाती पर पैर रखकर पूरा किया। भगवान विष्णु के चरणों का स्पर्श होने से बलि का पूरा शरीर रत्नमय हो गया। इसके पश्चात्‌ इन्द्र ने अपने वज्र के प्रहार से उसके शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। राजा बलि के शरीर के इन्हीं टुकड़ों से रत्नों की उत्पत्ति मानी गयी है।

इसके पश्चात्‌ भगवान शंकर ने इन रत्नों को अपने त्रिशूल पर धारण करके, उनमें नव ग्रह तथा बारह राशियों की प्रतिष्ठा करके उन्हें पृथ्वी पर चारों दिशाओं में बिखरा दिया। पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ ये रत्न गिरे, वहीं पर रत्नों के भण्डार उत्पन्न हो गये। इस कथा में यह भी कहा गया है कि राजा बलि के विभिन अंगों से ही विभिन्‍न रत्नों की उत्पत्ति हुयी, जैसे मस्तक से हीरा, मन से मोती, पित्त से पन्‍ना आदि। इसी प्रकार उसके शरीर के विभिन्‍न अंगों से चौरासी रल-उपरत्नों की उत्पत्ति मानी गयी है। इसी प्रकार रत्न उत्पत्ति के विषय में अन्य कई कथायें भी हमारे पौराणिक ग्रन्थों में उपलब्ध हैं, किन्तु यहाँ हमें अधिक विस्तार में नहीं जाना है।

रत्न उत्पत्ति की वैज्ञानिक मान्यता

वैज्ञानिक रत्नों की उत्पत्ति दो प्रकार से मानते हैं। एक तो वे रत्न होते हैं, जो खनिज कहलाते हैं अर्थात्‌ जो खानों से प्राप्त होते है, जैसे--हीरा, नीलम, पुखराज, पन्ना, माणिक आदि। दूसरे प्रकार के वे रत्न होते हैं जो समुद्र के गर्भ से प्राप्त होते हैं, इन्हें जैविक रत्न कहते हैं। इनका निर्माण समुद्र के गर्भ में विभिन्‍न समुद्री कीड़ों द्वारा किया जाता है, ये रत्न हैं-मूंगा तथा मोती।

पृथ्वी के भीतर नाना प्रकार के रासायनिक द्रव्य विद्यमान रहते हैं । पृथ्वी के भीतर ही भीतर इन रासायनिक द्रव्यों की निरन्तर रासायनिक क्रिया होती रहती है, अत: पृथ्वी के भीतर विभिन्न प्रकार के रासायनिक द्रव्यों की क्रिया स्वरूप और विभिन्‍न तापक्रम मिलने पर ही रत्नों का निर्माण होता है। रत्नों में मुख्य रूप से जो रासायनिक तत्त्व पाये जाते हैं, वे इस प्रकार हैं--कार्बन, बैरिलियम, कैल्शियम, एल्युमीनियम, हाइड्रोजन, फॉस्फोरस, मैगनीज, पोटेशियम आदि |

प्राय: ऐसा भी नहीं होता है कि कोई रल विशेष किसी एक रासायनिक द्रव्य से बना हो, बल्कि भिन-भिन्‍न रत्नों में अलग-अलग मात्रा में विभिन्न रासायनिक द्रव्यों का मिश्रण पाया जाता है। इसी कारण विभिन रत्नों का रंग, इनकी चमक तथा कठोरता आदि भी अलग-अलग होती है।

रत्न और ज्योतिष

रत्न और ज्योतिष का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से प्रत्येक ग्रह का एक प्रतिनिधि रत्न निर्धारित किया गया है, जो मनुष्य के जीवन में उस ग्रह विशेष के दुष्प्रभावों का निवारण करता है। रत्न एवं उपरत्नों का मनुष्य के जीवन पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ता है। इस विषय में भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही विद्वान एकमत हैं कि रत्न व उपरत्न ग्रहों के दुष्प्रभावों को दूर करने में समर्थ होते हैं। यह अलग बात है कि इस विषय में और पाश्चात्य पद्धति भिन्न-भिन्न है। यहाँ इस विषय में हम भारतीय तथा पाश्चात्य दोनों ही पद्धतियों का विवेचन संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके साथ ही साथ यहाँ पर एक प्रश्न यह भी उठता है कि रल मनुष्य के जीवन अथवा ग्रहों को किस प्रकार प्रभावित करते हैं। इस विषय में सर्वमान्य धारणा यह है कि विभिन्‍न रत्न अथवा उपरत्न रंग व रश्मियों को अपने में समाहित करके ही मनुष्य के जीवन को प्रभावित करते हैं। इसी कारण से कहा जाता है कि राशि रत्नों की अंगूठी बनवाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि उसका निचला भाग खुला रहे अथवा उंगली से स्पर्श करता रहे, जिससे सम्बन्धित रंग व अदृश्य किरणें रत्न में से गुजरकर शरीर में प्रवेश कर सकें ।

भारतीय ज्योतिष की मान्यता

भारतीय ज्योतिष की दृष्टि से रत्न धारण करने की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। इनमें सर्वाधिक प्रचलित विधि व्यक्ति की राशि के आधार पर रत्न धारण करने की है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति का नाम अशोक है, अत: वर्णाक्षर क्रम से अशोक की मेष राशि हुई। मेष का स्वामी ग्रह मंगल होता है, मंगल ग्रह का प्रतिनिधि रल मूँगा होता है, अत: अशोक नामक व्यक्ति को मंगल ग्रह के लिए मूंगा धारण करना चाहिये ।

नाम राशि के विषय में भी ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों में मतभेद है। इस विषय में कुछ लोग जन्म-राशि को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और उनका कहना है कि जन्म-राशि के आधार पर ही रत्न धारण करना चाहिये । इसके अतिरिक्त कुछ विद्वान प्रचलित नाम को अधिक महत्त्व देते हैं और उनकी मान्यता है कि नाम के आधार पर ही रत्न धारण करना चाहिये। नाम के विषय में हमारा अपना मत यह है की नाम उसे कहते हैं जिसके पुकारने पर सोया हुआ व्यक्ति जाग जाये। उदाहरण के लिये, किसी व्यक्ति का जन्म का नाम गोपाल है, किन्तु उसका प्रचलित नाम राकेश है। यह व्यक्ति यदि निद्रावस्था में है तो गोपाल नाम से पुकारे जाने पर वह कभी भी जागने वाला नहीं है, क्योंकि गोपाल नाम तो उसकी चेतना में कहीं है ही नहीं, हाँ, राकेश नाम से पुकारे जाने पर वह अवश्य ही जाग जायेगा। फिर जहाँ तक जन्म-नाम का प्रश्न है तो जन्म-नाम केवल जन्मपत्री में हो होता है, जबकि ऐसे बहुत-से व्यक्ति होते हैं, जिनकी जन्मपत्री होती ही नहीं, अत: इस विषय में हमारा मत है कि व्यक्ति को प्रचलित नाम के आधार पर ही रत्न धारण करना चाहिये।

भारतीय ज्योतिष के अनुसार रत्न धारण करने की दूसरी विधि जन्म-कुण्डली के आधार पर है। इसके आधार पर कुण्डली में यह देखकर रत्न धारण का विधान है कि किसी व्यक्ति पर किस ग्रह विशेष की दशा या महादशा चल रही है और उसके द्वारा उसका क्या अनिष्ट हो रहा है या होने वाला है। इस प्रकार कुण्डली देखकर ज्योतिषी रत्न धारण करने की सलाह देते हैं।

इसके अतिरिक्त, अंक ज्योतिष तथा हस्तरेखा के आधार पर भी अनिष्टकारी ग्रहों के दुष्प्रभाव से बचने के लिये रत्न धारण का विधान है। इनके आधार पर भी मनुष्य के जीवन के विषय में अनेक भविष्यवाणियाँ की जाती हैं और ये प्राय: सटीक भी होती हैं।

पाश्चात्य धारणा

पाश्चात्य मतानुसार रत्न धारण करने की विधि सूर्य राशि के आधार पर मानी गयी है। इसके अनुसार, माना जाता हैं कि अमुक समयावधि में सूर्य अमुक राशि में अपनी प्रखर अवस्था में रहता है, अत: इस हिसाब से व्यक्ति की अमुक राशि हुई और उसे अमुक रत्न धारण करना चाहिये। उदाहरण के लिये, यदि किसी व्यक्ति का जन्म 27 मार्च से 19 अप्रैल के मध्य हुआ है तो उसकी राशि मेष हुई अतः उसे मूँगा या उसके उपरत्न धारण करने चाहियें।

Post a Comment

أحدث أقدم